नदी तुम प्यासी न हो
लो, आँख का पानी
कर रहा हूँ बूँद की
मैं आज निगरानी।
अब न आते पंख प्यासे,
चौपदे तट पर
खुले घर, आँगन, दुआरे
पट नहीं घट पर
बो गया है रक्तबीजों को
कोई आकर
सीढ़ियों पर मर रही
बेवक्त जवानी।
लहर भी चुपचाप बैठी
रेत पर निर्जीव
मेघ परदेशी न आए
घाट पर चिरजीव
जंगलों के होंठ पर
न एक चुल्लू जल
आग के जलते पड़ावों में
है नादानी।
खेत गूँगे, फसल बौनी
घोसले बिन पर
सावनी यह हवा उगले
चिनगारियाँ भर-भर
खुशबुओं की गाल पर
चुभती किरन की पिन
क्या अँधेरों ने उजालों की
कभी मानी।